जीव का
वास्तविक स्वरूप यही है की वह श्रीकृष्ण का सनातन दास है–
जीवेर
स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास (चैतन्य चरितामृत)|
जिनकी
वाणी में जीव को उसके स्वरूप-धर्म (कृष्ण-दासत्व) में प्रतिष्ठित करने की गुरुता
(क्षमता) है– वही ‘गुरु’ हैं|
आध्यात्मिक
जगत में प्रमुखतः *चार प्रकार के गुरु* माने जाते हैं–
(१) दीक्षा-गुरु– जो वैदिक विधि से शिष्य को
वैदिक मंत्र प्रदान करते हैं
(२) शिक्षा-गुरु– जो सत्संग के द्वारा भक्ति
का उपदेश प्रदान करते हैं
(३) चैत्य-गुरु– सभी जीवों के ह्रदय में
स्थित परमात्मा ही सब को अच्छे-बुरे का ज्ञान प्रदान करते हैं– वे ही सबके चैत्य-गुरु हैं|
(४) पथ-प्रदर्शक गुरु– वे जो हमें यथार्थ गुरु का
आश्रय दिलवाते हैं|
*गुरु कैसे होने चाहियें?*
चैतन्य
चरितामृत में आता है–
किब
विप्र किब न्यासी शूद्र केने नय ।
जेइ
कृष्ण तत्त्ववेत्ता सेइ गुरु हय ॥
चाहे कोई
ब्राह्मण हो, संन्यासी
हो, अथवा
किसी ने शूद्रों के कुल में ही क्यों जन्म ग्रहण किया हो– किन्तु यदि वह व्यक्ति
कृष्णतत्त्व के अनुभवी हैं तो वह मनुष्यमात्र के गुरु हैं|
अपना
उद्धार चाहने वाले सभी व्यक्ति चार वैष्णव सम्प्रदायों में से किसी एक में दीक्षा
ले सकते हैं क्योंकि इन्हीं चार सम्प्रदायों में ही वैदिक ज्ञान तथा भक्ति अपने
यथार्थ स्वरूप में प्रवाहित होती है–
*(१) ब्रह्म सम्प्रदाय (२)
श्रीसंप्रदाय (३) रूद्र संप्रदाय (४) कुमार संप्रदाय*
इसी लिए
*गर्ग संहिता (१०/१६/२३-२६)* में इस प्रकार का वर्णन आता है :
*वामनश्च विधि शेषः सनको
विष्णुवाक्यतः|
धर्मार्थ
हेतवे चैते भविष्यन्ति द्विजः कलौ||
विष्णुस्वामी
वामनान्षतथा मध्वस्तु ब्राह्मणः||
रामानुजस्तु
शेषांश निम्बादित्य सनकस्य च|
एते कलौ
युगे भाव्यः सम्प्रदाय प्रवर्तकः|
संवत्सरे
विक्रम चत्वारः क्षिति पावन:||
सम्प्रदाय
विहीना ये मंत्रास्ते निष्फल: स्मृत:|
तस्माच्च
गमनंह्यSस्ति
सम्प्रदाय नरैरपि||*
*अर्थात*– ‘ भगवान् वामन, ब्रह्मा जी, अनंत-शेष एवं सनकादी चार
कुमार भगवान् विष्णु के आदेश से कलि युग में ब्राह्मणों के कुल में जन्म लेंगे| विष्णुस्वामी वामन के अंश
से, मध्वाचार्य
ब्रह्मा जी के अंश से, रामानुजाचार्य
अनंत-शेष के अंश से एवं निम्बादित्य सनक के अंश से कलियुग में प्रकट हो चार वैष्णव-सम्प्रदायों
के प्रवर्तक होंगे| यह सभी
विक्रमी संवत के प्रारम्भ से ही चारों दिशाओं को पवित्र कर देंगे| कलियुग में जो मनुष्य इन
चार वैष्णव-सम्प्रदायों में दीक्षा से विहीन होते हैं– उनके द्वारा जपे हुए मन्त्र
इत्यादि सभी निष्फल होते हैं| अत:
कलियुग में अपना कल्याण चाहने वाले सभी मनुष्यों को इन्हीं चार सम्प्रदायों में
मन्त्र-दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए|’
मध्यकाल
में बंगाल को गौड़देश कहा जाता था|
चैतन्य महाप्रभु तथा उनके अधिकांश पार्षदों नें गौड़देश में ही अवतार
लिया| इसीलिये
चैतन्य महाप्रभु की आराधना करने वालों को सामान्यत: गौड़ीय वैष्णव कहा जाता है| गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय
ब्रह्म सम्प्रदाय के अंतर्गत आता है|
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